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यूँ तो भारत की कोई भी राजनैतिक पार्टी दूध की धुली नहीं है पर काँग्रेस की तो बात ही कुछ निराली है। केन्द्र और नई दिल्ली दोनों जगह काँग्रेसी सरकार है और फिर भी एक को दूसरी से परेशानी है। राष्ट्रमण्डल खेलों को भ्रष्टमण्डल खेल की संज्ञा तो पहले ही दी जा चुकी है और भ्रष्टाचार में फँसते लोगों की बेहयाई की बात है। केन्द्र की काँग्रेसी सरकार ने इन खेलों में हुए भ्रष्टाचार की जाँच के ले शांगलू समिति का गठन किया और अब काँग्रेस की ही दिल्ली की सरकार कह रही है कि वो इसकी सिफारिशों को नहीं मानेगी। सवाल उठता है कि आखिर क्यों?
दरअसल बात है कांग्रेस की कार्य प्रणाली की। इस पार्टी में हमेशा से भ्रष्टों को बचाने की प्रथा रही है। पहले तो ये एक दूसरे को बचाते हैं और जब बात अपने फँसने की आती है तो ये तीर विपरीत दिशा में मोड़ने की कोशिश करते हैं। फिर होती है सौदेबाजी और क़ुर्बानी। ताकतवर के सामने कमजोर घुटने टेक देता है और एक सौदेबाजी के तहत अपनी क़ुर्बानी दे देता है।
घोटाले तो जवाहर लाल नेहरू से लेकर सोनिया गाँधी तक के नाम पर दर्ज हैं पर क़ुर्बान कब कौन हुआ आप सब जानते हैं। मैं यह नहीं कहता कि इलजाम मात्र से नेहरू, राजीव या सोनिया कसूरवार हो गए क्योंकि यह सब तो एक पक्षपातहीन जाँच का विषय है। पर इतना तो कहना ही होगा और यह सत्य भी है कि धुआँ वहीं उठता है जहाँ थोड़ी ही सही पर आग होती तो अवश्य ही है।
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