एक विश्वास
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कोयल!
ये मत सोच तू,
कि जिंदगी है उदास मेरी,
तेरी आवाज़ के बगैर|
माना, तू मीठा बोलती है,
मन खिल जाता है तेरी कूक से,
मैं ही क्या, सभी खिल जाते हैं
चेतन तो चेतन, जड़ भी मचल जाते हैं|
आम महुआ फूल जाते हैं|
मगर तू क्या सोचती है?
कि तेरी कू…कू… के बिना,
रुक जाएगा, खेल प्रकृति का|
या भूल जाएँगे लोग,
खुश होना, हँसना या नाचना गाना|
अगर तू सोचती है ऐसा,
तो ये घमण्ड है तेरा|
अरे देखने की भी तो नहीं है तू,
फिर ये अभिमान कैसा!
तेरी बोली को सराहा इसलिए,
या कि तेरी कूक को जोड़ दिया, बसन्त आगमन से इसलिए|
ओ अभिमानी, जरा सच को पहचान तू,
फिर दिखा अपनी शान,
तेरे कूकने से नहीं आते सुहाने दिन,
तेरा दर्द देखा नहीं जाता, इसलिए बहलाते हैं तेरा दिल,
और तू है, कि लादती है हमपर ही एहसान|
ये मत भूल कि वो मूर्ख होते हैं,
जो बैठते हैं जिसपर, वही डाल काट लेते हैं |
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