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कभी लोग बच्चों को दुलराते हुए गाते थे-“बच्चे मन के सच्चे…।” परन्तु आज लोग बच्चों को आफत और मुसीबत समझने लगे हैं। मगर यह स्थिति आई क्यों इस पर शायद आज भी सोचना हमने शुरू नहीं किया है।
यह तो सच है कि बच्चे अब ऐसे कारनामें कर रहे हैं जो बड़ों के भी दाँत खट्टे कर दे पर इसका जिम्मेदार कौन है, क्या कभी यह सोचने का वक्त निकाला हमने? बच्चे माँ बाप की निरंकुश आकांक्षाओं के और उनके अनावश्यक दिखावटी प्यार के शिकार हो कर यह सब करने को मजबूर हैं। संयुक्त परिवार का ताना बाना हम पहले ही तोड़ चुके है। अब उसके आगे बढ़ रहे हैं समाज को रसातल में पहुँचाने के लिए।
बच्चे एकाकीपन का शिकार हैं, माँ बाप पड़ोसी से या रिश्तेदारों से आगे निकल जाने की होड़ में पैसे के पीछे भाग रहे हैं जिसके लिए वो कोई भी कुर्बानी देने को तैयार हैं। बच्चों को संस्कार की जगह पैसे और स्नेह की जगह बाइक और मोबाइल दे कर काम चला रहे हैं। खुद दस घंटे घर से बाहर रहेंगे तो बच्चों को और क्या देंगे वो? और जो बच्चा दादा दादी या माता पिता के स्नेह और कभी कभी की फटकार से वंचित रह जाता है वो जिन्दगी मे कुछ अच्छा जल्दी तो नहीं ही बन पाता है। ऐसे समाज में बाल अपराधी क्यों नही मिलेंगे?
समाज जितना दोषी है उससे कम दोष हमारी सरकार का भी नहीं है क्योंकि सरकार जिस तरह से विद्यालयों में अध्यापकों के हाथ बाँधे हुए है उस स्थिति में भला और उम्मीद की भी क्या जा सकती है? सरकार को यह क्यों नहीं सूझता कि पहले भी तो बच्चों पर दबाव होता था पर फिर भी वो इस असर से बेअसर रहते थे तो आज जरा सी बात का उनपर इतना अधिक असर क्यों होता है? दरअसल यही होता है जब हम किसी को बेमतलब विशेषाधिकार देते हैं या उसे यह बताने कि कोशिश करते हैं कि तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है ऐसे में व्यक्ति बिना सोचे समझे आचरण करने लगता है।
आज कल मीडिया भी इस कुकृत्य मे शामिल है आग में घी डालने जैसा कार्य करके। मीडिया का तो काम ही जैसे बस इतना ही है कि वो हर खबर बढ़ा चढ़ा कर और नमक मिर्च लगाकर जनता के बीच परोसे और अपनी TRP में इस तरह इजाफा कर सके। अब ऐसे में बच्चे अपराधी नहीं तो और क्या बनेंगे?
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