लेखकों और पाठकों का संसार बड़ा अजीब होता है। कुछ लेखक बेसिर पैर की लिखते हैं तो कभी कभी पाठक गण भी बिना सोचे विचारे या जैसे बिना पढ़े ही टिप्पणी लिखने बैठ जाते हैं। दोनो ही स्थितियाँ स्वस्थ परंपरा की संवाहक नही बन सकती हैं। वैसे तो लेखक जो लिखता है वो उसके द्वारा कही पढ़ा या सुना या फिर खुद के अनुभव का निष्कर्ष होता है, पर पाठक का भी अपना पूर्व ज्ञान होता है जिसके आधार पर वो प्रतिक्रिया देता है। अब ऐसे में कभी किसी से विचार मेल खा भी सकते है और नहीं भी। विचारणीय यह है कि कोई किसी को अपने विचार बदलने की नसीहत दे या नहीं। मैं समझता हूँ कि ऐसे में व्यक्ति पूर्वाग्रही ना बने, जो कि अक्सर होता नहीं है, तो ही ठीक है। मेरा मतलब है कि आप अपनी बात को ऐसे कहें कि दूसरा समझ भी ले और उसे गलत भी न समझ पाए और शायद दोनो पक्षों के लिए ही यही ठीक होगा। समाज में सभी को अपने ढंग से सोचने का अधिकार मिला है तो समझदारी यही है कि हम जिस को गलत समझ रहे है उसे यह मान लें कि वो शायद लेखक या पाठक का अपना व्यक्तिगत अनुभव हो। बहुत सी बातें किताबों में नहीं मिलती है पर होती हैं वो सच्। सुभाष चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, ललित नरायण मिश्र की मौत से रहस्य का पर्दा उठाने की माँग आज भी होती है, क्यों? नेहरू और माउंट बेटन की पत्नी और इंदिरा तथा दिनेश सिंह या सोनिया और क्वात्रोची के घनिष्ट संबंधों की चर्चा कितनी किताबो मे की गई है। इंदिरा अपने खानदान के गुण्गान की गाथा एक कैपसूल में गड़वाना चाहती थीं क्या लिखा मिलेगा किसी किताब में? इतिहास लिखा नहीं लिखाया जाता है। NDA सरकार ने किताबों में बदलाव किया तो UPA ने कहा कि शिक्षा का भगवाकरण हो रहा है और जब वो खुद सत्तामें आए तो कम्युनिस्ट सोच हावी हुई और देश की सबसे बड़ी शैक्षणिक गतिविधि की संस्था NCERT ने शिवा जी को लुटेरा बता दिया और अपनी शाख पर बट्टा लगवाकर इसको फिर पुस्तक से हटाया जा पूरे देश में विपक्ष का हंगामा हुआ। अब अगर ऐसे में भी कोई पुस्तकों को पढ़ने की नसीहत दे या कोई किसी को निषपक्ष कहे तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि हम किसे सही और किसे गलत कहें। शायद सभी सही हैं या फिर कोई नहीं?
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