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ग़ज़ल

एक विश्वास
एक विश्वास
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खिलने से पहले कलियाँ, मुरझाईं बाग की,

ये हवस की आग है, या बात है बैराग की।

देखो जरा झाँक कर, तुम अपने गिरेबाँ में,

हरदम न करो बात, दामन के मेरे दाग की।

है बचना तेरा मुश्किल, इससे मेरे रफीक,

ये गरीब की हैं आहें, लपटें नहीं आग की।

इज्जत है किसे बख्शना, जानते हैं इसे सब,

साँपों की नहीं पूजा तो, होती है नाग की।

हम जुल्मोसितम क्यों सहें,यूँ आप के ‘अशोक’,

लूटी नहीं खुशियाँ हमने, आप के बाग की।

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