4 जून 11 को रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ उसे देख कर लोगों को बहुत कुछ याद आया मगर मेरे जेहन में तीन सवाल आए –
1) क्या काँग्रेस अंग्रेजों से ज्यादा दमनकारी है?
2) क्या भारत पर इटली का शासन स्थापित हो गया है? (सोते हुए स्त्रीयों-पुरुषों पर अत्याचार हो रहा है और नीरो अर्थात सोनिया-मनमोहन चैन की बंशी बजा रहे है।)
3) और सबसे अहम सवाल कि अगर रामदेव की जगह किसी अन्य धर्म का गुरु या नेता होता (भले ही वो अलगाववादी ही क्यों न होता) क्या तब भी काँग्रेस ऐसा ही करती, उसके प्रवक्ता ऐसे ही बोलते और देश की जनता ऐसे ही सो रही होती? इतना ही नहीं जो कुछ बेहूदे सवाल उठाए जा रहे हैं क्या तब भी ये सवाल ऐसे ही उठाए जाते?
मेरा तो यही मानना है कि अन्ना और रामदेव दोनों ही अति महत्वाकांक्षी हैं अन्यथा दोनों तालमेल बैठा कर एक साथ एक मंच से यदि इन आन्दोलनों को संचालित करते तो आज परिणाम कुछ और ही होता। इस कायर और स्वार्थी देश की जनता के भरोसे आन्दोलन खड़ा करना एक मुश्किल कार्य है। ये मिश्र या लीबिया नहीं है, त्याग की भावना का यहाँ अभाव है, यहाँ आप अपने कुछ समर्थकों को इस तरह पेश करें कि लगे कि सारा देश आप के पीछे खड़ा है तभी आप कुछ कर सकते हैं अन्यथा आप सफल नहीं हो सकते। यहाँ आपके साथ खड़े सौ में सत्तर लोग तो मात्र तमाशाई होते है फिर ऐसो के भरोसे भला कोई आन्दोलन कैसे चलाया जा सकता है। अन्ना हों या रामदेव किसी पर भी शक करने का अधिकार हमें है परन्तु हम इस बात को भी ना भूलें कि यदि गलत आदमी भी कोई भला कार्य करे तो हम उसका सहयोग kkkkकरें। जिन बाल्मीक की रामायण को हम शीश नवाते हैं उनका इतिहास सभी जानते हैं। एक शराबी से अधिक शराब की बुराई को कौन जानता है फिर उसके शराब ना पीने के मशबरे को पहले मानें इसीमें हमारी अक्लमन्दी है। रामदेव का विरोध वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि देश के भ्रष्टतम लोग ऐसा कर रहे हैं, देश हित में नहीं है। सारा देश जानता है कि रामदेव के खिलाफ बोलने वाले लालू हों या काँग्रेसी या फिर बुखारी हों या शंकराचार्च सभी अपनी अपनी राजनीति कर रहे हैं। ऐसे में रामदेव या अन्ना के समर्थन में क्या बुराई है? दोनो के आन्दोलन एक हैं और ये दोनों भी एक हो जाएँगे?
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