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दायित्वबोध

एक विश्वास
एक विश्वास
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भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में बहस का मुद्दा है भ्रष्टाचार पर कैसे अंकुश लगाएँ? भ्राष्टाचार रूपी कैंसर हमारे समाज को खा रहा है और हम असहाय, मूकदर्शक बने हुए हैं क्योंकि हम खुद भी लिप्त हैं इसमें। अपने लिए भ्रष्टाचार शिष्टाचार है, दूसरों के लिए नरक का द्वार हैं। बेहया राजनीतिज्ञों से लेकर हम आप सभी कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में दोषी अवश्य हैं। आज के चलन के अनुसार हम यह कह के अपने को बचाने का प्रयास तो कर सकते हैं, कि हम तो दाल में नमक खा रहे हैं पर दूसरे तो नमक में दाल खा रहे हैं, पर इससे बच नहीं सकते। आरम्भिक अवस्था में हर चीज छोटी ही होती है।

आज या तो हम यह मान लें कि सब ऐसे ही चलेगा और जो हो रहा है वह सब ठीक है या फिर संकल्प लें कि आज से हम खुद को भ्रष्टाचार से दूर रखेगें और भ्रष्टाचार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज से अपनी आवाज मिलाएँगें। लालच, बहकावे, दल और थोथे धर्मों के दलदल में नहीं फँसेंगे। यदि हम आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ और जीने लायक परिवेश देना चाहते हैं तो ये कुर्बानी भी हमें ही देनी होगी। हमें अपने बीच से ही सुभाष और चंद्रशेखर खोजने होंगे और उनको पूरा समर्थन दे कर भ्रष्टाचार की लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा। हम अपनों के जुल्म सह लेते है पर उनपर जुल्म कर नहीं पाते इसलिए यह लड़ाई और भी कठिन है परन्तु आज हम जिन अपनों से लोहा ले रहे हैं वो ऐसी सोच नहीं रखते इसलिए हमें सजग और चौकन्ना रहते हुए सारे कार्य करने हैं। हमारी किसी एक गलती का विरोधी से लेकर आमजन तक सभी गलत अर्थ निकालेंगे। विरोधी हमें बदनाम करेगा और हमारे देश की नकारा और स्वार्थी जनता भी निजी और क्षणिक लाभ के लिए उसी की हाँ में हाँ मिलाएगी, दूरगामी परिणाम की बात आज तक इसने जानी और सोची ही नहीं है।

घपलों घोटालों कि सूची पर नजर जाती है तो शर्म आती है यह कहते हुए कि इस सूची का आरम्भ उन नेहरू जी के समय से हुआ है जो इस देश के कर्णधार, निर्माता माने जाते हैं और बच्चों के चाचा। वाह रे चचा क्या खूब नीव डाल के गए हो भविष्य की कि जहाँ सिवाय अंधेरे और घुटन के हमें कुछ और दिखता ही नहीं है। खैर अब –

हम समझ गए हैं चालें सारी, अब क्या देखें ये दुनियादारी।

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