निगमानन्द का बलिदान:व्यवस्था का नंगा सच विषय पर जागरण फोरम में विचार आमंत्रित किए गए हैं। मुझे लगता है कि व्यवस्था को सही अर्थों में नहीं लिया गया है। हम किस व्यवस्था की बात कर रहे हैं जो प्रशासनिक है या राजनैतिक, जो हमने मजहबी जुनून से पीड़ितों को सौंप रखी है या जो सामाजिक दायित्व के रूप में हमारे ही सिर पर है। इस विषय पर बहस या लेखन का कार्य करने को कोई भी करे पर हमारे आम नागरिक और अति खास तथा महत्वपूर्ण लोग तो हर्गिज ना करें क्यों कि इस विषय में कहीं किसी तरह के कुतर्क और छिछोरेपन की गुंजाईश बिलकुल नहीं है। किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी के भी द्वारा किए गए किसी आंदोलन को कमतर समझने की भूल हम ना करें और रही बात कि किसे प्रचारक मिला किसे नहीं तो इसके लिए दोषी कौन है? व्यवस्था तो कौन सी व्यवस्था? असली प्रश्न और मुद्दा तथा चर्चा का विषय यही होना चाहिए। मगर कितनों ने यह चर्चा की होगी? आज भी कितनों को पता होगा स्वर्गीय निगमानन्द जी का नाम और उनका बलिदान? ये गहन चिन्तन का विषय है कि आखिर हम हर स्तर पर असफल क्यों हो रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमारी मानसिकता में छुपा है। मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि हमारे समाज को अपनी स्वार्थी और मजहबी सोच को पटरी पर लाने की आवश्यकता है, दोहरी मानसिकता को छोड़ने की जरूरत है और राष्ट्रीयता के मुद्दों की समझ विकसित करने की जरूरत है जो हमारे देश कि जनता में या तो है ही नहीं या फिर हम इन सब की कहीं अपनी स्वार्थपरायणता की खातिर तिलांजलि दे बैठे हैं। धर्म को राजनीति से अलग रखने की बात करने वालों ने ही राजनीति को धर्म की दलदल में ढ़केला है। भ्रष्टाचार से लड़ने की घोषणा करने वालों की ही सबसे ज्यादा काली कमाई विदेशी बैंकों मे जमा है और हम उन्ही के सहारे अपनी नाव खेना चाहते हैं। आखिर क्यों? हैं ना कहीं हमारे भी स्वार्थ उनसे जुड़े हुए या फिर हम कायरता के शिकार हो गए हैं? स्वामी जी का बलिदान देश की भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था के द्वारा उनकी बलि है। जनता को पता है एकता की ताकत पर वो इसका उपयोग अपने स्वार्थ साधने के लिए ही करती है और नेता को चाहिए वोट उसे किसी के जीने मरने से ही नहीं अपने देश और माँ-बाप से भी ज्यादा अपने वोट प्यारे हैं।
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