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ये क्या बात हुई

एक विश्वास
एक विश्वास
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“समरथ को नहिं दोष गुसाईं ………॥” आज हमारा लोकतंत्र तानाशाही के चरम पर पहुँच चुका है। आज के शासक वर्ग ने आम लोगों को ही नहीं बल्कि अपने विरोधी को भी सबक सिखाने की ओछी हरकत को अपना हथियार बना रखा है। हम दूसरों का सम्मान करना कब सीखेंगे? क्या हम हमेशा दोहरे चरित्र और दोहरे मानदण्ड अपनाने के ही आदी बने रहना चाहते हैं? हमारी गुलामी की आदत कब जाएगी? हम स्वाभिमान के साथ जीना कब सीखेंगे? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर पाना आसान नहीं है।
कल स्वामी रामदेव फिर निगमानन्द और अब अन्ना सब गाँधीजी की ही प्रथा को आगे बढा रहे हैं मगर आज चूँकि काँग्रेसियोंका अस्त्र उन्ही के खिलाफ प्रयोग हो रहा है इसलिए आज ये सब असंवैधानिक हो गया है। सोनिया, राहुल, मनमोहन या उनकी टीम क्या यह बताने का कष्ट करेगी कि वो किस संविधान की बात कर रहे है? जिसे खुद उन्होंने कभी नहीं माना या जिसको ना जाने कितनी बार इनकी पार्टी ने अपने हित में संशोधित किया है।
आजादी के पहले क्रान्तिकारी जतिन दास ने जेल में 13 सितम्बर 1929 से अनशन किया और अपने प्राण दिए मगर काँग्रेसी साथ नहीं आए। 19 अक्तूबर 1952 से अमरजीवी पोत्ती श्रीरामलु ने अलग आंध्रप्रदेश राज्य के लिए अनशन किया मगर नेहरु ने इसे नजरअंदाज किया और जब इसीके कारण उनकी मृत्यु हो गई तो उन्ही नेहरू ने नए आंध्रप्रदेश की स्थापना की घोषणा कर दी। जून 2011 में निगमानन्द ने गंगा के मुद्दे पर अनशन में प्राण त्यागे तब भी किसी सोनिया या मनमोहन का ध्यान उधर नहीं गया। काँग्रेस क्यों मानेगी कि जिस लिए गाँधीजी का अनशन होता था आज खुद काँग्रेस के कारण कुछ वैसे ही हालात में दूसरों के अनशन हो रहे हैं इसलिए ये असंवैधानिक भी हैं तब भी इन्हे गलत नहीं कह सकते। वैसे भी अगर ये अनशन गलत थे तो काँग्रेसी मंत्री पहले अनशनकारियों के सामने नतमस्तक क्यों हुए? बात नहीं बनी तो झूठे आरोप मढ़ दिए और जब चुनौती मिली तो भीगी बिल्ली की तरह कोना थाम लिया। काँग्रेस क्यों नहीं बताती कि सोनिया किस मर्ज का इलाज किस अस्पताल में करा रही हैं? देश की जनता उनके शीघ्र स्वास्थ्यलाभ की कामना करेगी। मगर राज को राज रखना ही पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ हम लड़ेंगे की हुँकारवाले मंत्री और प्रधानमंत्री जो अपने भ्रष्ट सहयोगियों को नहीं सँभाल सकते उनसे जनता भला क्या उम्मीद रखे और थोपे गए मनमोहन को प्रधानमंत्री क्यों माने?

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