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महाभारत या उसका छद्म प्रदर्शन

एक विश्वास
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सपाइयों का अखिलेश को हीरो बनाने का नाटक सफलतापूर्वक समाप्त हो गया है। मुलायम भी राजनैतिक नाटककारों में एक मझे हुए निर्माता व निर्देशक साबित हुए हैं। आजम या लालू तो मुलायम के ही बनाए गए सूत्रधार थे वरना दोनो को पता है कि मुलायम के आगे वो क्या हैं। बिहार चुनाव में मुलायम नें लालू के गठबंधन में शामिल होने के मुद्दे पर क्या रुख अपनाया था सभी को पता है। मुलायम ने शिवपाल तथा अखिलेश को एक दिनी मैच खिलवा कर अंपायर की भूमिका में खुद को रखते हुए अखिलेश को जीता हुआ घोषित कर शिवपाल का मुंह बंद कर दिया और रामगोपाल जो अखिलेश के पक्षधर हैं तथा जिसको उपेक्षित दिखाने का नाटक चल रहा था उसका भी पटाक्षेप हो गया। रामगोपाल ही तो एक व्यक्ति है जो इस खानदान में पढ़ा लिखा है और मुलायम की ही वजह से सही पर एक हैसियत तो बना ही ली है राजनीति की बदनाम गली में। मुलायम व रामगोपाल ने शिवपाल के मंसूबे पर ऐसे पानी फेरा है कि वो कहीं के नहीं रहे।

दूसरा पहलू भी समझना ही पड़ेगा जो महाभारत के महान रचयिता ने हमें समझाया है। धृतराष्ट्र को अयोग्य होने के बावज़ूद गद्दी मिली थी परिस्थितिवश, तो कह सकते हैं कि वो मात्र संरक्षक थे और उनका फर्ज़ था कि समय आने पर गद्दी वो सही वारिस को सौंप देते परन्तु हुआ क्या? धृतराष्ट्र के पुत्र मोह ने उन्हें अनैतिक कार्य करने के लिए मजबूर किया और उन्होंने किया भी जिसका दुष्परिणाम हमारे सामने है। जो विनाश हुआ था हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। जो नुकसान उस समय हुआ वह आज विश्व युद्ध की स्थिति में ही होगा। जिस तरह से पेड मीडिया और मुलायम के समर्थकों द्वारा अखिलेश को विकास का पर्याय बताया जा रहा है और एक योद्धा की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है इसका असर कितना होगा यह कहना मुमकिन नहीं है परन्तु तो होगा ही। सबसे बड़ी बात है कि यह सकारात्मक होगा या नकारात्मक क्योंकि यही उप्र का भविष्य तय करेगा। यह बात समझ नहीं आती कि अगर अखिलेश को राजनैतिक विरासत ही सौंपनी थी तो फिर पढ़ाने में समय क्यों बरबाद किया गया क्योंकि राजनीति तो अँगूठाटेक भी अच्छी कर लेते हैं। शायद पढ़ाई में असफल रहने का नतीजा होगा यह?

राजीव गाँधी के कुकृत्य की सजा तो हमें भोगनी ही होगी जो १८ वर्ष के बच्चों को वोट का अधिकार थमा कर अपनी पीठ थपथपाकर निकल लिए और देश को अनुशासनहीन लोगों की फौज दे गए। आज १६ साल का बच्चा वोटर लिस्ट में नाम लिए घूम रहा है जिसे पढ़ाई से मतलब नहीं है और सरकार की गलत नीतियों के सहारे अनैतिकता में फँस रहा है। एक तरफ सरकार की निगाह में १७ साल ३६४ दिन वाला मासूम है परन्तु मात्र एक दिन बाद वही वोट के लिए परिपक्व हो जाता है और विडंबना कि अभिभावक उसका विवाह करना चाहें तो उसी परिपक्व को सरकार अपरिपक्व घोषित कर उन्हें जेल भेज देगी क्योंकि विवाह के लिए लड़का २१ का ही परिपक्व होगा। मैं विवाह की उम्र पर नहीं लिख रहा हूँ बस सरकार के विरोधाभासी कार्य का जिक्र कर रहा हूँ क्योंकि यही कृत्य तो समाज में विकृत पैदा करते हैं।

राजनीति में मायावती या मनमोहन या अखिलेश को बिना चुनाव लड़े ही सत्ता मिल गई थी। यह नियमानुसार सही था परन्तु जब नियम ही गलत हो तब? जो करोड़ों खर्च कर चुनाव लड़े वो उनके अधीन कैसे काम करे जिनके पास दस वोटों का भी दम नहीं है परन्तु भारत जहाँ दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र के नाम पर सबसे बड़ा राजतंत्र नेहरू गाँधी दे गए हैं वहाँ सब जायज है। हमें तो डर है कि कल लोग अपनी गाय या भैंस (गूँगे बहरे या मानसिक विकलांग) को सीएम अथवा पीएम की गद्दी सौंपना न शुरु कर दें। धिक्कार है ऐसे लोकतंत्र और नेता पर जो जनता को सही राह नहीं बता सकता परन्तु गलत पर चलने में पूरी मदद ही नहीं करता बल्कि पूरी ताकत ही झोंक देता है। अखिलेश को हीरो बनानेवाले कभी नहीं सोचेंगे कि लोकतंत्र में परिवारवाद या विरासत या उत्तराधिकार नहीं चलता है परन्तु मुलायम ने क्या किया? उसको जिसने कभी राजनीति का मुंह तक नहीं देखा था सीधे मुख्यमंत्री पद सौंप दिया सिर्फ इसलिए कि वो उनका पुत्र है। याद करिए ये वही मुलायम हैं जो नेहरू खानदान का विरोध इसी परिवारवाद को हटाने के लिए ही करते थे। और याद कीजिए यही मुलायम हैं जो अंग्रेजी का भी जमकर विरोध करते थे परन्तु खुद की बारी आई तो बेटे को आस्ट्रेलिया पढ़ने भेज दिया जहाँ हिंदी तो शिक्षा का माध्यम नहीं ही हो सकती है। इतने फरेब के बावजूद जनता ने साथ दिया जाति धर्म भूलकर परन्तु जनता तो छली ही गई न। मुलायम ने परिवारवाद को बढ़ाया, हिंदी की जगह उर्दू पर पैसे बरबाद किए, जातिवाद को प्रश्रय दिया, सांप्रदायिकता को पाला पोषा, अपराध को राजकीय धर्म बना दिया शायद कोई ऐसी बुराई नहीं, वोटों के लिए जिसको न अपनाया हो। मगर दोष मुलायम या इन्हीं की तरह निकृष्ट राजनीति करनेवाले अन्य का उतना नहीं है जितना हमारा जे हम बार बार ऐसे लोगों के झाँसे में आते रहते हैं।

अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि पैदल हो चुके शिवपाल करते क्या हैं। क्या वो गुमनाम होना पसंद करेंगे या किसी के रहमोकरम पर दुम हिलाएँगे या फिर किसी नए अवतार में नया जन्म लेंगे। कुछ भी हो परन्तु शिवपाल तलवे चाटना तो शायद ही पसंद करें। तो क्या वो अपने वजूद की लडाई लड़ेंगे, क्या किसी बाहरी का दामन थाम अपने अस्तित्व को प्रमाणित करेंगे या शांत बैठ जाएँगे? लगता नहीं कि वो शांत बैठेंगे तो फिर क्या हो सकता है ऐसे में देखनेवाली बात यही है। हो सकता है कि पार्टी २०१७ विधानसभा चुनाव में भितरधात का शिकार हो।

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