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सरकारी धन का दुरुपयोग

एक विश्वास
एक विश्वास
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काम सारे वही करते हैं पर,

कहते तुष्टीकरण नहीं करेंगे।

तुम दोहरी बातें करते हो तो,

हम तुम्हारा विश्वास करेंगे?

आज रिज़र्व बैक का बयान आया है कि “शरिया बैक” की स्थापना के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की गई है।
सवाल समयसीमा का तो है ही नहीं सवाल तो करदाता के धन के अपव्यय का है जो सरकार वैसे ही करेगी जैसे कश्मीर में पत्थरबाजी करनेवाले पाकिस्तान से पत्थर मारने के और भारत से, सुधार कर मुख्य धारा में जुड़ने के पैसे ले रहे हैं। परन्तु हो क्या रहा है यही न कि उनको पता है कि सुधर गए तो मुफ्त की रोटी बंद हो जाएगी इसलिए बेहतर है पत्थर बंद मत करो ताकि वो कमाई बंद न हो। रही बात भारत की तो, उसकी तो मजबूरी है वो तो पैसे देगा ही।

अलगाववादी नेता भारतीय सुरक्षा में और भारतीय सुख-सुविधा में ऐश करते हैं और काम भारत के टुकड़े करने के करते हैं परन्तु भारत सरकार आज तक उनको गद्दारी और देशद्रोही होने का पुरस्कार दे रही है। पत्थरबाज तो सब की निगाह में भटके हुए बेचारे हैं, मासूम हैं। शायद सरकारे मानती हैं कि यही उनकी रोजी रोटी का जरिया है जो बंद न हो।

अब बात तो यह तुष्टीकरण की ही है, कोई माने या न माने। ऐसे ही “शरिया बैंक” भी तुष्टीकरण का मामला है। सरकारों को सोचना चाहिए कि आज का मुसलमान खासकर भारत का मुसलमान इस्लाम को मानने के मामले में दोहरी नीति अपनाता है। तीन तलाक से महिलाओं को तकलीफ है तो वो चलना चाहिए क्योंकि उससे मौलानाओं का फायदा है। इसपर वो नहीं मानेंगे कि असली मुस्लिम देशों मे यह प्रथा बंद कर दी गई है। असली का मतलब जहाँ वो मुसलमान हैं जो मोहम्मद साहब के दौर के हैं। यह प्रथा पाकिस्तान में भी बैन है परन्तु भारत व पाकिस्तान के मुसलमान वो हैं जिन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया है वो भी इस्लाम के बनने के वर्षों बाद। ये तीन चार सौ साल पहले दूसरे धर्म को माननेवाले थे और इनका जबरन धर्म परिवर्तित करवाया गया था परन्तु आज ये सबसे बड़े ठेकेदार बनना चाहते हैं।

मैं फिर कह रहा हूँ कि ये असली इस लिए नहीं हैं क्योंकि ये इस्लाम को इस्लाम के आदर्शों पर नहीं अपनी सुविधा के अनुसार मानते हैं। जैसे हज यात्रा धार्मिक काम है जो खुद के पैसे से होनी चाहिए परन्तु ये यही यात्रा सरकारी अनुदान पर करते हैं। अनुदान पर हज यानी हद है इस्लाम का मजाक उड़ाने की। यही बात जब उप्र के मंत्री मोहिसिन रजा ने की कि धनी लोग तो यह अनुदान लेना बंद करें तो बवाल होने लगा। अब सवाल वही कि क्या यह तुष्टीकरण नहीं है और उससे भी बड़ी बात कि क्या भारतीय मुसलमान सच्चे मुसलमान हैं? जवाब हमेशा नहीं में ही आएगा। इसका मतलब यह भी नहीं कि हर मुसलमान ऐसा है परन्तु यह गलत भी नहीं कि आधिसंख्य तो सही नहीं हैं।

दोहरे मानदंड अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति वो चाहे जिस धर्म का हो सही नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए जो हिंदू गाय को माँ कहता है वही दूध दुहने के बाद उसको आवारा पशु बना कर छोड़ देता है तो वह हिंदू नहीं कसाई है। लालू कहता है कि वो सबसे बड़ा गौ पालक है। परन्तु वो भूल जाता है कि वो गौ पालने वाला व्यापारी है न कि गौ रक्षक या गौ सेवक जो देशी गायों की सेवा करता है। सेवक रक्षक और पालक तीनों में अंतर है यह तो सभी समझते ही हैं। असली गौ सेवक कहलाने का अधिकारी वही हो सकता है जो देशी गायों का पाले उनकी रक्षा करे औप सेवा खुद अपने हाथों से करे।

मुद्दा तो “शरिया बैंक” है। तो सरकार क्यों बनाना चाहती है यह शरिया बैंक। जब असली लोग ही नहीं हैं जो पूरी तरह से इस्लामी रास्ते पर चल रहे हों। और नकली वाले तो जुए और व्याज तक के धंधे से परहेज नहीं करते हैं तो इस प्रकार की सुविधा का उनके लिए औचित्य क्या है? क्या यह महज तुष्टीकरण या वोट के नाम पर उस जनता पर चोट नहीं है जो इसलिए कर देती है कि देश का विकास हो? यह जन-धन का दुरुपयोग क्यों न माना जाए? हम क्यों न कहें कि हमारी सरकारें जनता के पैसे दुरुपयोग तानाशाहीपूर्ण तरीके से अपना हित साधने के लिए करती हैं? क्या यह किसी ऐसे समूह के आगे घुटने टेकने जैसी बात नहीं है जो देश नहीं मजहब को बड़ा मानता है और अश्फाक उल्लाह या डाॅ0 कलाम जैसे देशभक्त को मुसलमान मानने से इनकार कर खुद को बड़ा साबित करना चाहता है? इतना ही नहीं बाबर गोरी जैसे बरबर लुटेरों को अपना आदर्श मानता है?

क्या यह हमारी हार नहीं है? या देशभक्तों का अपमान नहीं है?

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