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गजल

एक विश्वास
एक विश्वास
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तुम्हें अपना रंजोगम, सुनाना नहीं है।
तो जीने का मुझे भी, बहाना नहीं है॥
इक दर्द ही बचा है, कि जिंदा हूँ अभी।
है वो जाना पहचाना, बेगाना नहीं है॥
सजी महफिलों में, भी रहा मैं अकेला।
दर्द ऐ दिल का कोई, ठिकाना नहीं है॥
मुझे सताने लगे ये, जमाने भर के लोग।
क्योंकि फितरत हमारी, सताना नहीं है॥
जो कुछ और नहीं तो, ये सितम ही सही।
आखिर इनका तो कोई, दीवाना नहीं है॥
ये लोग और करेंगे क्या, हँसने के सिवा।
तो दिल का हाल इनको, बताना नहीं है॥
चलो हँस भी लेने दो, अशोक तुम इन्हें।
जख्म नामुरादों से मुझे, छुपाना नहीं है॥

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