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सब नंगे हैं

एक विश्वास
एक विश्वास
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कश्मीर मुद्दे पर केंद्र सरकार जैसे पल्ला झाड़ रही है। लगता है कि वो बस तमाशबीन जैसी स्थिति में है।
कश्मीर में अलगाववादी देश विरोधी गतिविधियों में लगे हैं और वहाँ के दोनों राजनैतिक खानदान इन अलगाववादियों के किसी न किसी गुट के साथ साँटगाँठ रखते हैं। यह अबदुल्ला खानदान कभी बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार में मंत्री पद पर आसीन था और तब बीजेपी सेकुलर थी इन सांप्रदायिक लोगों के लिए और आज जब मुफ्ती खानदान बीजेपी के साथ हो गया है तो अब मुफ्ती खानदान के लिए बीजेपी सांप्रदायिक नहीं बल्कि सर्वाधिक सेकुलर हो गई है।
समस्या इन कश्मीरी ख़ानदानों से नहीं है समस्या तो काँग्रेस व बीजेपी से है जो अपने स्वार्थ के लिए देश को भी दाव पर लगाने से बाज नहीं आतीं है।
कश्मीर की समस्या नेहरू गांधी दे गए और कांग्रेस उसे बाप दादों की जागीर समझ कर सहेजती रही परन्तु ये बीजेपी वाले इतने दोहरे मानदंड कैसे रख सकते हैं। इनके नेता को तो कश्मीर के लिए जान तक गँवानी पड़ी थी। क्या भाजपा अब एकदम एहसानफरामोश हो गई है। और कांग्रेस के कर्णसिंह को सबकुछ क्यों भूल गया?
आज कश्मीर सुलग नहीं जल रहा है। नेता अपनी राजनीति कर रहे हैं। कोई महिलाओं को अधिकार दिलवा रहा है तो कोई विरोधी को कोसने में लगा है और कुछ तो इतने निकृष्ट हैं कि या तो वो ऐय्याशी में लगे हैं या फिर चीन पाकिस्तान से भारत में सत्ता परिवर्तन के लिए गुहार लगा रहे हैं। सारी पार्टियाँ सस्ती लोकप्रियता के लिए देश से गद्दारी करने तक से बाज नहीं आ रही हैं। आज मुझे नहीं लगता कि भारत की कोई भी राजनैतिक पार्टी किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार में न डूबी हो। कोई सामाजिक तो कोई आर्थिक और कोई आपराधिक भ्रष्टाचार को अपनाए ही नहीं बैठा है बल्कि उसका पूरी तरह से पालनपोषण कर रहा है।
नेता चरित्रहीन होकर बैठे है और जाति या धर्म के नाम पर देश से विश्वासघात कर रहे हैं। आमजन तो सदा ही नेताओं के पीछे चला है वो भी बिना सोचे समझे फिर ऐसे में देश का भला कैसे हो सकता है।
दोगलेपन की हद देखिए कि अब्दुल्ला खानदान और उसकी पार्टी खुलेआम आतंकियों का समर्थन कर रही है पर वो खुलेआम घूम रहे हैं और सेना मार खा रही है। इतना ही नहीं बेइज्जत होने के बाद भी देशद्रोहियों की सुरक्षा के लिए बाध्य की जा रही है। ऐसे में किस मनःस्थिति से हमारे जाँबज जवान गुजर रहे होंगे यह कौन सोच सकता है?
जो गटर में रेंगने वाले कीड़े जैसे नेता अपनी बेइज्जती तो छोड़िए मात्र उनसे प्रश्न पूछने भर से वो नाराज हो कर किसी को जिंदा जलवा तक देते हैं उन्हें जवानों का दर्द कैसे महसूस हो सकता है? शायद इसलिए हमारा जवान देश को किसी भी कीमत पर टूटने नहीं देना चाहता है जबकि नेता को तो गद्दी से मतलब है जिसके लिए वो एक नहीं अनेक टुकड़े कर सकता है देश के। मैं सच कह रहा हूँ क्योंकि इस बात का गवाह इतिहास भी है। याद कीजिए देश को आजादी कैसे मिली थी और सत्ता को हथियाने के लिए यहाँ क्या हुआ था?
सबको पता है मुझे कहने की आवश्यकता नहीं है कि किस तरह का कुचक्र रचा गया था कि दुनिया समझे की सत्ता तो संभालने लायक कोई था ही नहीं और कुर्बानी देनेवाले को सत्ता अंग्रेज सौंप गए। न जाने कितने सच को झूठ और झूठ को सच बनवा दिया गया और भारत का इतिहास झूठ का पुलिंदा बन कर रह गया। यही इतिहास पढ़कर लोग बड़े हुए और प्रशासन की बागडोर संभाली। सोचिए कि ऐसे लोग देशहित की बात कैसे सोचते क्योंकि वो तो पूर्वाग्रही जैसे थे। ये सत्ता का मोह और सत्ता हथियाने की जिद ही थी जो देश को आज फिर सन् ४७ के दौर में खींचे लिए जा रही है। नेताओं के साथ जनता भी दोषी है इसके लिए क्योंकि आजादी के सत्तर साल बाद भी जनता ने खुद को जाति धर्म के नाम पर या निजी स्वार्थ में गद्दार नेताओं का खुद को गुलाम बना रखा है।
इतना ही नहीं ये इतने जकड़े हुए हैं गुलामी में कि आज भारत लोकतंत्र नहीं राजतंत्र बन गया है। पिता की विरासत प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुँच गई है। पुत्र पुत्री पौत्र प्रपौत्र सब एक के बाद एक जनता की कृपा से लोकतंत्र के राजा बनते जा रहे हैं। हद है कि जनता रो रही है पर सुधार नहीं रही है जैसे अबोध बच्चे पिन या ब्लेड से अपना हाथ लहूलुहान करते जाते हैं और रोते चिल्लाते भी जाते हैं परन्तु उस दर्द देनेवाली वस्तु को अज्ञानता से छोड़ते भी नहीं हैं यहाँ कि जनता भी वैसी ही हो गई है।
ऐसी स्थिति में किसी परिवर्तन या सुधार की बात ही बेमानी लगती है।
भारत के अंदर नमकहराम नेताओं ने न जाने कितने कश्मीर बना दिए हैं। यहाँ चारों ओर बारूद बिछाती जा रही है। नेता तो अपना उल्लू सीधा कर रहा है पर ये जनता क्या कर रही है?
दुर्दिन आएँगे तो नेता नहीं जनता ही पहले मरेगी।

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