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कविता

एक विश्वास
एक विश्वास
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मैं बिखर रही हूँ
पर लोग हैं,
जो मानते नहीं।
वो कहते हैं,
मैं निखर रही हूँ।
रंग-रूप-यौवन
सब लज्जा से समेटे
और मान-मर्यादा
सबकुछ सहेजे
एक बंद कली सी हूँ, तो
यह चुभता है तुमको?
मेरा खिलना,
बेशर्मी से हिलना डुलाना,
बस यह भाता है तुमको।
आखिर क्यों नहीं तुम,
किसी का सम्मान देख पाते हो?
आखिर क्यों,
तुम किसी की अस्मिता रौंद
कर ही खुश हो पाते हो?
मुझे फूल नहीं बनना है, क्योंकि
तुम्हारी आँखों में
मैंने देखा है,
मेरे माथे पर
चिंता की एक रेखा है।

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