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मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड कह रहा है कि वो लोगों को नियुक्ति देकर समझवाएगा कि कोई तीन तलाक न दे।
तो यही पहले कर लेते तो तुम्हारे यहाँ फूट क्यों पड़ती?
वैसे यह तो बहाना है सरकारी व कानून दखल से बचने का। सोच यही है कि फिलहाल बच के निकलो फिर बाद में देख लेंगे। क्योंकि अगर ये ईमानदार होते तो तीस साल पहले शाहबानो केस के समय ही खुद को सुधार लेते। परन्तु तब तो ये कांग्रेस से मिल कर सर्वोच्च न्यायालय को नीचा दिखाने की चाल चल रहे थे जिसके कारण आरिफ़ साहब जैसे नेता को कांग्रेस से किनारा करना पड़ा था।
लोग भूल जाते हैं कि हर दिन एक समान नहीं होता। कभी कोर्ट का फैसला पलटवाने वाले मुसलमान आज वहीं नाम रगड़ने को मजबूर हैं कि मोहलत दें हम सब ठीक कर लेंगे और कांग्रेस जहाँ कह आई थी कि राम तो काल्पनिक पात्र हैं आज वहीं उनमें रखी जानेवाली आस्था को महत्व दे रही है।
यहाँ एक घटना का जिक्र जरूरी है। सहारनपुर से भीम सेना नामक संगठन जो दलितों का मसीहा बना है कल कुछ लोगों के साथ दिल्ली जंतर मंतर गया था धरने के लिए और कुछ समय पहले ही यह धमकी दी कि हमको न्याय न मिला तो हम लोग मुस्लिम बन जाएँगे। किसी को जो बनना है बने परन्तु यहाँ बात बनने की नहीं है। याद करिए कि कुछ दिन पहले कुछ मुस्लिम महिलाओं ने एक हिंदू संगठन के साथ बैठ कर कहा कि तीन तलाक मुद्दा नहीं सुलझा तो वे हिंदू बन जाएँगी। यह बात संगठन के प्रभाव में कहने से सरासर गलत है। हाँ कुप्रथाओं को यदि समाज दूर नहीं करना चाहता है तो उसके विरोध में धर्मांतरण सही है। परन्तु यहाँ यह भी सोच लेना होगा कि हम जहाँ जा रहे हैं वहाँ का सामाजिक ढाँचा कैसा है। क्योंकि अगर हम आसमान से गिर कर खजूर में अटके तो क्या लाभ हुआ?
बात साफ है जो धर्म कभी मुसलमान को या ईसाई को यहाँ तक कि मजबूरी से भी हिंदू से मुसलमान या ईसाई बने लोगों से परहेज करता था और उनको अपवित्र कहकर पुनः अपने में नहीं मिलाता था आज वो लोगों की घर वापसी के नाम पर धर्मांतरण को हवा दे रहा है। मुस्लिम या ईसाई तो भारतीय धरा पर धर्मांतरण का ही नतीजा हैं। यह तो प्राचीन समय से ही चला आ कहा है। आज जब आबोहवा इनके अनुकूल है और देश में राजनीति अवसरवादी है जनता भी अवसरवाद को भुना रही है तो ऐसे में हम क्या उम्मीद करें? मुस्लिम खुद के खोट छिपाने के बहाने तो खोज ही रहे हैं साथ ही अपने समाज से कुंठाग्रस्त हिंदुओं का धर्मांतरण भी अपना एक हथियार बनाना चाह रहे हैं। देश कहीं गृहयुद्ध की तरफ न चला जाए यह डर तो सताता ही है इन सब कारनामों को देख कर। वोट की राजनीति कुछ भी करवा सकती है।
सब समय का फेर है।
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