- 149 Posts
- 41 Comments
यह जो आदर्शवादिता है न यही देश को खाए जा रही है क्योंकि इसमें हमेशा ही दोगलापन झलकता है। सब अपने तरीके से किसी विषय को समझना व समझाना चाहते हैं। दूसरों की परवाह किए बगैर।
आज गुरु पूर्णिमा है। लगभग डेढ़ माह बाद शिक्षक दिवस भी आ जाएगा। गुरु व शिक्षक दो अलग जीव हैं। जिनकी अपनी प्रतिबद्धताएँ हैं। गुरु प्राचीन समय में होते थे गुरुकुल चलाते थे और समाज में आदरणीय थे इसलिए विद्यार्थियों को समाजोपयोगी शिक्षा देते थे। समाज के सहयोग से समाज के बच्चे पढ़ते बढ़ते थे और समाज के काम आते थे। गुरुओं पर राजा प्रजा सब का विश्वास था तो विश्वास टूटता भी नहीं था।
आज गुरु की जगह शिक्षक हैं और गुरुकुल की जगह कान्वेंट या सरकारी विद्यालय जहाँ शिक्षक गुरु कदापि नहीं हो सकता है। शिक्षक तो मात्र सरकारी या कान्वेंट के मालिक का गुलाम है। वो शिक्षा नहीं देता वो तो चाकरी करता है और मालिक के आदेशों का पालन करता है। निजी विद्यालय में फीस की उगाही मुख्य धंधा है। सरकारी में कागजी कार्रवाई और सरकार के वो काम जहाँ लोगों की कमी हो लगा दो भड़े के मजदूर यानी शिक्षक को।
सारी नीतियाँ सरकार की तो शिक्षक का क्या है योगदान किसी काम के बनने या बिगड़ने की स्थिति में। जब सरकार ही नहीं तय कर पाती है कि शिवाजी लुटेरे थे या देशभक्त या चंद्रशेखर आजाद भगतसिंह क्रांतिकारी थे या आतंकी तो शिक्षक क्या करे। यह देश बाबर या गोरी का है या महाराणा प्रताप और बुद्ध या नानक व गुरु गोविंद सिंह का है तो शिक्षक से लोग उम्मीद करते ही क्यों हैं।
आखिर लोग यह सोच भी कैसे लेते हैं कि वो शिक्षक देश को सुयोग्य नागरिक व राष्ट्रभक्त देगा जो स्वयं ही शिक्षक को गुलाम बनाए बैठे हैं और जिसे वो हिकारत भरी नजरों से देखते हैं।
एक गुलाम से लोगों को किस बात की आशा है और क्यों?
Read Comments